सिसक-सिसक कर |
है ये चाँद का सूनापन या है रात का अकेलापनसिसक -सिसक कर जीते है, सिसक -सिसक कर मरते है
फिर भी है ये सोच की हम दूसरो का लिए जीते है .........
या फिर है तारो का सनाटापन
अमावस्या से पूर्णिमा तक के जिंदगी को हमने देखा है ....
अन्ना से लेकर लोकपाल को हमने देखा है
सोच किसी का और वाह-वाह किसी को
जिंदगी की इस उलटफेर को हमने बरे ही गौर से देखा है ....
जब नग्न बदन ,बच्चा कोई रोटी को रोता है
माँ कहती थोरी देर सब्र कर ले
क्यों की वो थोरी ही देर में रो-रो कर मातृभूमि पर सोता है .....
है ये गरीबी या है ये पुरस्कार
जिसको हम देने चले है या लेने चले है .......
लेकिन अंत तो कुछ यू ही हुआ ......
सिसक-सिसक कर मरते रहे
अपनी पहचान के लिए भटकते रहे ............
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